मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

स्वामी संपूर्णानंद सरस्वती

 


बद्रीनाथ मंदिर में दर्शन के बाद मन बहुत प्रसन्न था. मंदिर के गरम पानी के कुंड में नहाने जैसा  आनंद तो किसी पांच सितारा होटल के स्विमिंग पूल में भी कभी नहीं आया था. भगवान बद्री विशाल के दर्शन के बाद जैसे मन  बहुत शांत हो गया था. इसके बाद मुझे  दोस्तों के साथ व्यास व गणेश मंदिर तथा भीम पुल देखने जाना था . इसके आगे माना गांव था जो  सीमा पर भारत का आखिरी गांव था और उसके बाद चीन की सीमा प्रारंभ होती है. मंदिर के सामने से निकलते हुए  बद्रीनाथ मंदिर के कुछ  फोटो लेते हुए धीमे-धीमे आगे बढ़ रहा था कि अचानक मेरी निगाह एक सन्यासी और सन्यासिन पर पड़ी जो सामान्य सन्यासियों से सर्वथा भिन्न लग रहे थे. 

लगभग 6 फुट के स्वामी जी और 6 फुट से कुछ ही कम साध्वी. ऊपर से नीचे तक सलीके से पहने गए भगवा वस्त्र, गोरा चिटटा रंग और आकर्षक चेहरा सब मिलाकर उन दोनों के व्यक्तित्व को अत्यधिक प्रभावशाली और गरिमामयी  बना रहे थे. सन्यासी की  आंखों पर   काले - पतले फ्रेम का चश्मा, और मस्तक  पर लाल पीले चंदन का तिलक, बढे  हुए खिचड़ी बाल और बिना दाढ़ी मूछ का साफ सुथरा चेहरा. साध्वी ने बिना फ्रेम का चश्मा लगाया  था और माथे पर लाल पीले चंदन का तिलक. सिर के लगभग सफेद हो चुके बालों के साथ गंभीर और मोहक छवि. दोनों की उम्र 60 से 65 वर्ष के बीच होगी. मुझे लगा कि शायद किसी फिल्म या टीवी सीरियल की शूटिंग हो रही है, इसलिए मैं ठिठक गया और इधर उधर निगाह दौड़ाई लेकिन कहीं कुछ नजर नहीं आया. सन्यासी का चेहरा मुझे परिचित जैसा क्यों  लग रहा था? सोचा किसी धार्मिक टीवी चैनल पर प्रवचन करते देखा होगा.  लेकिन अचानक जैसे मुझे सब कुछ  याद आ रहा था और मैं तेज कदमों से उन सन्यासियों की तरफ चल पड़ा .....

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(२)

मैं और शंटी सहपाठी तो थे ही,  हॉस्टल में भी एक ही कमरे में रहते थे इसलिए हम लोगों के रिश्ते दोस्ती से ज्यादा पारिवारिक हो गए थे. मेरा उसके घर बहुत ज्यादा आना जाना था और परीक्षा के पहले उसके घर पर ही हम लोग साथ-साथ तैयारी करते थे. शंटी के पापा बैंक में बड़े अधिकारी थे और उसके बाबा  साथ रहते थे जो पोस्ट मास्टर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए थे.  घर के सभी सदस्यों से मेरी  घनिष्ठता थी, इसलिए पारिवारिक बातें भी मेरे सामने होती रहती थी. 

मुझे एक बात बहुत असामान्य लगती थी कि शंटी की मम्मी, उसके पापा से कभी  अच्छे ढंग से पेश नहीं आती थी और बात बात में ताने  मारा करती थी.  कभी-कभी ऐसा लगता था कि वह जानबूझकर उन्हें व्यथित करने के लिए ऐसा करती हैं. पता नहीं क्या दुश्मनी थी ? घर का पूरा नियंत्रण उन्हीं के हाथों में था. 

 जो भी हो, शंटी के पापा  संपूर्णानंद त्रिपाठी उनसे किसी भी तरह उलझते नहीं थे. वह बेहद शालीन और शांत स्वभाव के उच्च शिक्षित व्यक्ति थे और घर की प्रत्येक जिम्मेदारी बखूबी निभाते थे. उनके व्यक्तित्व की एक विशेष बात थी कि न वह कभी हंसते थे न मुस्कुराते थे और न ही अनावश्यक बात करते थे. वह अपने काम से काम रखते थे और बहुत ही नपी तुली बात करते थे. मैंने महसूस किया था कि वह अपनी पत्नी की बातों से इतना दुखी रहते थे कि दुख की चादर हमेशा उनके व्यक्तित्व पर छाई रहती थी. ऐसा लगता था कि वह अपनी नीरस  जीवन को, बिना उफ किये  सजा की तरह काट रहे थे. 

जब कहीं किसी सामाजिक कार्यक्रम में सपरिवार जाना होता था, तो मानो वह अपने बच्चों की मां को या अपने पिता की बहू को साथ ले जाते  थे, पत्नी को नहीं. जब तक उनके पिता जिंदा थे तब तक तो कुछ गनीमत थी क्योंकि वह अपनी बहू को टोकते रहते थे और सुखी दांपत्य जीवन के बारे में समझाते रहते थे. आखिर वह उनके बहुत ही घनिष्ट दोस्त की बेटी जो  थी. उनके निधन के बाद यह नियंत्रण भी खत्म हो गया और  बढ़ती कलह  के कारण संपूर्णानंद त्रिपाठी के लिए घर का माहौल और ज्यादा कष्टकारी और असहनीय हो गया. उन्होंने इसके लिए एक उपाय  ढूंढ निकाला और वह था शहर से दूर  की पोस्टिंग ताकि वह पत्नी  की नियमित यातना  से बच सकें. केवल बड़े तीज त्यौहार में ही घर आते थे. मुझे याद है कि एक बार वह  दिवाली में भी  नहीं आ सके थे क्योंकि उनकी ब्रांच में ऑडिट चल रहा था.  शंटी की मम्मी ने आसमान सिर पर उठा लिया था " वह उसी कुलक्षनी  के घर  गए होंगे या उस कुल्टा को वहीं बुला लिया होगा .. पता नहीं क्या क्या ...अनाप ..शनाप " 

मैंने एक बार हिम्मत करके शंटी से पूछा ही लिया "कि यह कुलक्षिनी और  कुलटा कौन है ?" शंटी भी अपनी  मम्मी के आचरण से बहुत  दुखी रहता था लेकिन कुछ कर नहीं सकता था. उसने बताया कि उसके पिता का कॉलेज के दिनों में किसी लड़की से प्रेम प्रसंग था और दोनों ही शादी करने के लिए कृत  संकल्पित थे लेकिन बाबा उनकी शादी अपने दोस्त की बेटी के साथ करने के लिए वचनबद्ध थे और उनके दबाव के कारण ही उसके पिता को ये  शादी करनी पड़ गई. लेकिन उस लड़की ने अपने परिवार के दबाव को दरकिनार करते हुए कभी शादी न करने का फैसला किया और वह  आज भी अविवाहित है. वह  लखनऊ विश्वविद्यालय में इंग्लिश की प्रोफेसर हैं डॉक्टर सरस्वती शर्मा.  किन्तु दोनों  के बीच में आजकल कोई भी संपर्क नहीं है. शंटी ने बताया कि उसने अपनी मां के लिए कई बार इन लोगों की जासूसी भी की, जिसका उसे बहुत दुख है लेकिन मां के बे सिर पैर के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं निकली. 

बाद में मुझे पता चला कि मेरी मौसेरी बहन जिसके मार्गदर्शन  में पीएचडी कर रही है, वह कोई और नहीं डॉक्टर सरस्वती शर्मा ही है. मेरी बहन ने डॉक्टर शर्मा के बारे में जो कुछ भी बताया, उससे उनके त्याग और तपस्या ही परिलक्षित हुई . पूरे विश्व विद्यालय के शिक्षक संकाय में उनका बहुत मान   सम्मान था  वह सबकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहती  थीं . परिवार न होने के कारण प्राय विश्वविद्यालय प्रशासन त्योहारों और छुट्टियों के मौके पर विभिन्न परियोजनाओं में उनकी ड्यूटी लगा देता था , और वह चुपचाप खुशी-खुशी यह सब करती रहती थीं .  विश्वविद्यालय की वह इकलौती ऐसी प्रोफेसर थीं  जो अतिरिक्त कक्षाएं लेती थीं,  छात्रों की समस्याओं के लिए सदैव तत्पर रहती थी , और कितने  ही सामाजिक कार्यों से जुड़ी  थीं . अपने आप को व्यस्त रखना शायद उनकी आदत  थी . 

कालांतर में उस  बैंक में मेरा चयन हो गया, जहां  संपूर्णानंद त्रिपाठी वरिष्ठ अधिकारी थे और यह सुखद संयोग ही था कि परीक्षाधीन अवधि में सामान्य बैंकिंग की ट्रेनिंग के लिए वही  शाखा मिली  जहां वह  मुख्य प्रबंधक थे. चार-पांच महीनों की इस अवधि में मेरा उनसे रोज ही मिलना होता था और वहां मैंने उन्हें एक नए इंसान के रूप में पाया. बैंक मैं उनकी गिनती बेहद कार्य कुशल, जानकार और सक्षम अधिकारियों में होती थी. कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ उनके संबंध बेहद अपनत्व भरे थे और सबसे बड़ी बात थी कि वह किसी भी स्थिति में किसी से नाराज नहीं होते थे. एक दिन  शाखा के एक कर्मचारी ने एक ग्राहक के साथ बेहद गैर जिम्मेदारी भरा काम किया जिस पर स्वाभाविक रूप से कोई भी  मुख्य प्रबंधक बहुत नाराज होता, लेकिन  उन्होंने उसे  बुलाया और समझा कर वापस भेज दिया. 

मैंने उनसे पूछा "सर इतनी बड़ी गलती और आपने नाराजगी तक प्रकट नहीं की, डांटना तो दूर की बात" 

उन्होंने बहुत शांत मुद्रा में कहा " मैं सिलेक्टिव कैसे हो सकता हूं ? कितनी ही विषम परिस्थितियों में मैं घर पर भी  किसी से नाराज नहीं होता या नहीं हो सकता , तो बाहर कैसे नाराज हो जाऊं. मैं दोहरे मापदंड कैसे अपना सकता हूं? नाराज न होना  अब मेरा आत्मसमर्पण नहीं,  आदत  है." 

मैंने महसूस किया की शाखा में कर्मचारी उनकी इस आदत से परिचित थे, इसलिए ज्यादातर में उनके समझाने का व्यापक सुधारात्मक असर पड़ता था और यही सभी से उनकी आत्मीय संबंधों की कुंजी थी. मैंने कभी उन्हें खाली नहीं देखा, दफ्तर में काम में व्यस्त रहते थे और छुट्टी के समय अपने निवास पर  पुस्तकें पढ़ते थे जिनमें बहुतायत  आध्यात्मिक   होती थी. 

शाखा में रहते हुए इतने कम समय में मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला.  वहां से स्थानांतरण के पश्चात भी मैं अक्सर सोचता था कि ईश्वर ने उनके साथ ऐसा इतना अन्याय क्यों किया?  उनका दाम्पत्य जीवन इतना  पीडादायक था कि  उनके प्रति मेरी सहानुभूति,  सम्मान और श्रद्धा में  बदल गई थी. मैं अक्सर सोचता था कि काश उनकी शादी उसी लडकी से हुई होती  .... शायद उनका जीवन बिलकुल अलग होता . कैसा होता ? पता नहीं,  लेकिन मेरे मन में  ये बात बहुत  गहराई से बैठ गयी थी कि ये सब न होने की लिए संपूर्णानंद पूरी तरह से जिम्मेदार थे. क्यों उन्होंने  इसे स्वीकार किया और विरोध नहीं किया? इसलिए उनका दाम्पत्य जीवन अगर सजा है तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए थी .   

जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, दोस्तों की आवश्यकता तो बहुत  बढ़ती है, पर दोस्तों की संख्या नहीं बढ़ती, ज्यादातर दोस्त वही रहते हैं जो बचपन से लेकर छात्र जीवन तक बनते हैं और उनसे भी धीरे-धीरे अपनी अपनी व्यस्तताओं  के कारण संपर्क कम होता रहता है, लेकिन मैं और शंटी हमेशा संपर्क में रहते थे. वह उत्तर प्रदेश सचिवालय में समीक्षा अधिकारी  था जहां अच्छी बात यह थी कि  स्थानांतरण नहीं होते थे. मैं स्थानांतरण के कारण एक शहर से दूसरे शहर और अब दूसरे राज्य में पहुंच गया था. 

एक दिन अचानक शंटी ने घबराते हुए फोन किया और  बताया कि पापा घर छोड़ कर पता नहीं कहाँ चले  गए हैं? मैं स्तब्ध रह गया. उसने बताया कि   सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने भविष्य निधि, ग्रेच्युटी सहित कुल जमा पूंजी मम्मी को दे दी थी, शायद उनके दिमाग में कोई योजना थी. वह एक पत्र छोड़ गए हैं जिसमें उन्होंने लिखा है कि उन्होंने अपने जीवन की सारी जिम्मेदारियां पूरी कर दी है, बच्चों की पढ़ाई लिखाई नौकरी और शादी सब कुछ व्यवस्थित ढंग से हो गया है. मम्मी के लिए मकान, नौकरी की सारी बचत  और सेवानिवृत्ति पर मिले सभी रुपए छोड़कर जा रहे हैं. पेंशन का खाता मम्मी के साथ संयुक्त खाता है, जिसकी चेक बुक एटीएम कार्ड सब मम्मी के पास है. उन्होंने लिखा है कि जब तक जीवित रहेंगे वह जीवन प्रमाण पत्र देते रहेंगे और पेंशन मम्मी को मिलती  रहेगी. मर जाने पर व्यवस्था करेंगे की मृत्यु प्रमाण पत्र भी सही जगह पहुंच जाएं ताकि फैमिली पेंशन आती रहे. इसलिए मम्मी के जिंदा रहने तक उन्हें  कोई वित्तीय समस्या नहीं आएगी. वह अपने बचे हुए जीवन में मन और चित्त के लिए शांति की  खोज के लिए  भ्रमण करेंगे, इसलिए उन्हें ढूंढने और संपर्क करने के  प्रयास में  समय बर्बाद न किया जाए. 

 मैं स्तब्ध रह गया. मैंने पूछा कि "कहीं पता किया क्या ?" तो उसने कहा 'नहीं'  लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा लेकिन न जाने क्यों मै पता नहीं करना चाहता क्योंकि यही पापा की इच्छा है. मुझे लगता है कि शायद यही उनके हित में है. मैं उस समय शांत हो गया  लेकिन मन अशांत हो गया.  

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(३) 

सन्यासी और साध्वी के पास पहुंचने के बाद मैंने सन्यासी की तरफ देखते हुए कहा "अंकल प्रणाम"

सन्यासी ने एक टक मुझे देखा जरूर लेकिन कोई जवाब नहीं दिया. मैं भी लगातार उन्हें देखे जा रहा था, लगा कोई गलतफहमी हो गई है क्या?

थोड़ी देर के लिए सभी निशब्द हो गए. मैं उन्हें देख रहा था और वह मुझे देख रहे थे.

साध्वी ने हस्तक्षेप किया और हम दोनों की तरफ देखते हुए पूछा " क्या आप लोग एक दूसरे को जानते हैं?"

"स्वामी जी का तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं इन्हें अच्छी तरह से जानता हूं" मैंने जवाब दिया, लेकिन सन्यासी ने  फिर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, इसलिए मैंने फिर बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-

" अंकल मैं शंटी का दोस्त हूं, राज  .... राज वर्मा "  सन्यासी की आंखों में मैंने झांक कर देखा तो लगा कि प्रश्न परिचित होने का नहीं है बल्कि परिचित होने की स्वीकारोक्ति का है. यह हां और न के बीच का असमंजस है. लेकिन मैं आश्वस्त था कि यह वही है, इसलिए अधीर  हो रहा था. मैंने झुक  कर उनके पांव छुए और  फिर बात आगे बढ़ाई -

" सर, मैं जनरल बैंकिंग के लिए आपका ट्रेनी  था, राज वर्मा.... ८७ बैच, चंदौसी ब्रांच." मैं जैसे उन्हें याद दिलाने की कोशिश कर रहा था.

चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाकर वह  बोले 

"कैसे हो..... राज?"

 मेरी खुशी का ठिकाना न रहा "अच्छा हूं सर" मैंने कहा

" यहाँ  कैसे ?" उन्होंने पूछा

" ट्रैकिंग के लिए 'फूलों की घाटी' गया था, लौटते हुए दर्शन करने के लिए रुका था और अब माना गांव जा रहा हूं" मैंने बताते हुए पूछा -

"लेकिन आप ? और यह सन्यासी की वेशभूषा?" 

उन्हें गहरी सांस खींचते हुए बहुत ही निश्चिंत भाव से  कहा-

"मैंने अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद घर छोड़ दिया है,... और सन्यास ले लिया है".  कुछ रुक कर वह बोले -  

"तुम कुछ भी अर्थ निकाल सकते हो..........घर छोड़ने के लिए संयास ले लिया या फिर.......  सन्यास लेने के लिए घर छोड़ दिया"

फिर उन्होंने साध्वी की तरफ इशारा करते हुए कहा-

" यह है डॉ सरस्वती शर्मा, लखनऊ विश्वविद्यालय में इंग्लिश की प्रोफेसर, अभी हाल ही में रिटायर हुई हैं ."

 मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा .  मैंने  उत्सुकता पूर्वक  साध्वी  की और देखते हुए  कहा -

" मैंने पहले कभी आपको देखा तो नहीं है लेकिन आपके बारे में थोड़ा बहुत जानता जरूर हूं.  सर को तो मैंने घर  और ऑफिस  दोनों जगह देखा समझा और महसूस किया. मैं जितना भी आप के बारे में  जानता  और समझता था  उससे मेरे दिल में आप  के  लिए बहुत ही सम्मान था  लेकिन आज आप दोनों के लिए मेरे दिल में बहुत श्रद्धा उत्पन्न हो गयी है ." 

थोड़ा संभलने की कोशिश करते हुए भी  मेरे मुहं से मेरे दिल की बात निकल   गई .  

" मुझे नहीं मालूम क्यों? लेकिन आप दोनों  को, इस रूप में ही सही, उम्र के इस पड़ाव पर ही सही, साथ-साथ देखने से मेरे मन की गहराइयों में बसी एक अकुलाहट आज समाप्त हो गई है. इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं और यह मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं" यह कहते हुए मैंने साध्वी के भी चरण स्पर्श किये. पर  पता नहीं क्यों मेरी आंखें भर आई, गला रुंध गया.

रुक रुक कर बोलते हुए मैंने कहा -

"मैं आपका बेटा तो नहीं, लेकिन बेटा जैसा ही हूं. अगर कभी आप लोग मुझे सेवा का मौका देंगे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी और मैं इसे अपना सौभाग्य  समझूंगा "

साध्वी के चहरे पर जैसे वात्सल्य उमड़ आया था. दोनों ने बारी बारी  अपना हाथ मेरे सिर पर रखा और बड़े प्यार से  सहलाया और फिर  चल पड़े नीचे घाटी की ओर एक साथ एक रास्ते पर , स्वामी सम्पूर्णानंद  सरस्वती और  साध्वी सरस्वती सम्पूर्णा   .

यहां से मेरा रास्ता अलग था लेकिन मैं  उन्हें यूं ही जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक कि वे  मेरे आंखों से ओझल नहीं हो गए.

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- शिव प्रकाश मिश्रा ( Shive Prakash Mishra )

           मूल कृति -  १५ अगस्त २०१८ (Copy Right)


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बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

उड़ान




सैन फ्रांसिस्को का  यह मौसम बहुत ही सुहाना था. काफी देर से हल्की बूंदाबांदी हो रही थी. दक्ष बर्कले यूनिवर्सिटी से वापस आया  था और बार्ट ( बे एरिया रैपिड ट्रांसपोर्ट) स्टेशन  से पैदल चलते हुए अपने फ्लैट की तरफ जा रहा था. छाता लगाने के बाद भी बारिश की बूंदे हवा के झोंके से रह रह कर उसके शरीर को स्पर्श कर  रही थी और दिन भर की स्मृतियां जैसे एक बार फिर उसके मन मस्तिष्क में तरोताजा हो जा रही थी. बर्कले विश्वविद्यालय में " स्टार्टअप्स इन इंडिया" शीर्षक पर आज उसका व्याख्यान था . भारतीय समुदाय के छात्रों के अलावा दुनिया के अन्य देशों के भी छात्र एवं शोधकर्ता विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में खचाखच भरे थे और उसके पूरे व्याख्यान के समय तालियों की गड़गड़ाहट से लोग उसके ओजपूर्ण भाषण को बहुत ध्यान से सुनते रहे.

 उसके भाषण का  केंद्रबिंदु था कि भारत में स्टार्टअप्स के लिए अपार संभावनाएं हैं, लोग इस पर काम भी कर रहे हैं.  प्रत्येक वर्ष हजारों की संख्या में नए स्टार्टअप्स का रजिस्ट्रेशन होता है लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि उसमें से अधिकांश हर साल बंद हो जाते हैं.

 भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों से निकले हुए मेधावी छात्र सीधे विदेशों का रुख करते हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में अच्छे पैकेज में नौकरी करना शुरू कर देते हैं.  यह लोग स्टार्टअप्स में जोखिम लेने की बजाय  अच्छे पैकेज के कारण नौकरी करना ही पसंद करते हैं  और सोने के पिंजरे में कैद हो जाते हैं. शायद भारत में स्टार्टअप्स को  अधिक सफलता न मिल पाने के पीछे एक यह भी कारण है. लोग दूसरों से   कुछ और कहते हैं, और खुद कुछ और करते हैं. वह स्वयं इसका एक उदाहरण है. उसका मन आत्म ग्लानि से भरने लगा . भारतीय प्रबंध संस्थान बेंगलुरु से एमबीए करने के बाद उसे ओरेकल  का ऑफर मिला और  वह  आज कल ओरेकल की स्ट्रेटजी टीम का हिस्सा है.

 "उसने खुद जोखिम क्यों नहीं लिया ? " उसने अपने आप से प्रश्न किया .

"भारतीय संसाधनों का उपयोग करके वह जिस  काबिल  बना उसका फायदा तो अमेरिका को हो रहा है, भारत को क्या मिला?"

 वह  अपने आपसे प्रश्न कर रहा था और उनके उत्तर भी स्वयं ढूढ रहा था और इसी बीच डाउनटाउन  स्थित उसका फ्लैट भी आ गया. वह आज बर्कले यूनिवर्सिटी में छात्रों को सफलता के सूत्र और स्टार्टअप्स की स्ट्रेटजी बताने गया था लेकिन लौटकर आते आते वह स्वयं अपने सवालों में जैसे गुम हो गया.

 फ्लैट के अंदर आकर भी वह अपने सवालों के उत्तर ढूंढ रहा था. उसे याद है कि  हैदराबाद के हाईटेक इलाके में विप्रो सर्किल पर उसके पिता ठेले पर इडली और डोसा की चलती फिरती दुकान लगाते थे.  पास में ही कई आईटी कंपनियों सीए टेक्नोलॉजी, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और और ओरेकल जैसी  नामी-गिरामी कंपनियों के कार्यालय थे. वह पढ़ाई तो करता था लेकिन अपने पिता की सहायता के लिए अक्सर उनकी दुकान पर जाता था. यह काम ही ऐसा था जिसमें पूरा परिवार लगा रहता था. घर पर मां रात में इडली और डोसे का सामान तैयार करती थी, उसकी छोटी बहन भी उनका हाथ बंटाती  थी और सुबह सुबह पिता अपनी चलती फिरती दुकान लेकर निकल जाते थे. रा मैट्रियल से उत्पाद तैयार करना और फिर उनकी बिक्री करना यह तीनों काम एक ही परिवार करता था. यह अपने आप में कम लागत पर सामान तैयार करने और कम कीमत पर बेचने का एक सशक्त उदाहरण था.

 आईटी कंपनियों में काम करने वाले युवा  कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता के इडली और डोसे  मिलने  के कारण उनके पिता की दुकान के स्थाई ग्राहक थे. वह इन युवाओं को देखता था और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े-बड़े कार्यालयों को देखता था और सोचता  था कि इन  में काम करने वाले लोग भी कितने सौभाग्यशाली होते हैं. वह भी इन आने वाले युवा ग्राहकों से अपनी जिज्ञासाओं के बारे में पूछता और उनमें से कुछ लोग बहुत सहजता से उसे समझाते थे. इसी कारण वह अपने पिता को बीटेक की पढ़ाई करने के लिए तैयार कर सका था. पढ़ाई में थोड़ी मेहनत, इन युवाओं का मार्गदर्शन और सौभाग्य से हैदराबाद स्थित जेएनटीयू (जवाहरलाल नेहरू टेक्निकल यूनिवर्सिटी) में बीटेक कंप्यूटर साइंस मैं उसे एडमिशन मिल गया.

 इसके बाद भी वह पिता के काम में सहयोग करता रहा. उसने बिक्री, पैकिंग और डिलीवरी के कुछ नए प्रयोग भी किए जो काफी सफल रहे, जिससे पिता की व्यवसाय में थोड़ा वृद्धि भी हुई.  जब कैट में उसका 99.9० परसेंटाइल आया तो इन युवाओं ने ही उसके पिता को समझाया और उसके पिता ने भी हिम्मत करके उसे भारतीय प्रबंध संस्थान बेंगलुरु में प्रवेश दिलवाया. उसे बी टेक और एमबीए के लिए बैंक से लोन मिल गया था. फिर उसकी उड़ान भारतीय प्रबंध संस्थान बेंगलुरु से सीधे ओरेकल  पार्कवेसैन  फ्रांसिस्को आकर रुकी. पिछले 4 सालों में यहां रहते हुए उसने सारे बैंक ऋण चुकता कर दिए हैं. अपने पिता की व्यवसाय को भी व्यवस्थित कर दिया है. उसकी बहन भी हैदराबाद के अच्छे कॉलेज में पढ़ रही है. यह सब संभव हो रहा है उसके वेतन और बचत से और शायद इसीलिए वह अपना कोई व्यवसाय करने का जोखिम नहीं ले सकता था. संभवत यही कारण है की औसत भारतीय निश्चित आय के लिए नौकरी करना ही ज्यादा पसंद करता है, अपना खुद का व्यवसाय नहीं . 

 उसने स्वयं की  स्टार्टअप्स बनाने के लिए योजना तो  बनाई है, आईटी एप्लीकेशन भी  बनाया है लेकिन हिम्मत नहीं कर सका, जिसका सबसे बड़ा कारण रहा है  असफलता का डर ( fear of  failure). उसने जो स्टार्टअप्स की योजना बनाई थी उसके  केंद्र में भी उसके पिता का व्यवसाय ही था जिसके पीछे उसकी मंशा थी कि  उसके पिता का यह  व्यवसाय  ऐसा नया आयाम ले जिससे उसके पिता को भी उस व्यवसाय पर गर्व हो सके.  उसने आईपैड में उस योजना को एक बार फिर शुरू से आखिर तक देखा उसे लगा यह प्रोजेक्ट चल सकता है. उसने अपने मजबूत होते आत्मविश्वास को एक बार फिर टटोला जैसे अपने आप से कहा कि "अगर पंछी पिंजरे में बंद रहेगा तो उड़ान कैसे भर सकेगा?"

और .... फिर उसने भारत वापस आने का फैसला कर लिया और शुरू हो गयी उड़ान, सैन फ्रांसिस्को - मुंबई और मुंबई - हैदराबाद .

                                                                           (२) 

भारत वापस आकर दक्ष ने दिन रात मेहनत की, आईटी एप्लीकेशन को अंतिम रूप दिया और फिर लॉन्च हो गया एक नया बिजनेस प्लान.

दक्ष के स्टार्टअप की हैदराबाद और बेंगलुरु दोनों जगह बहुत प्रशंसा हो रही है. यह अपनी तरह का एक अलग ही बिजनेस मॉडल है जिसका आधार है लोगों का विश्वास. हैदराबाद और बेंगलुरु की बड़ी गेटेड कम्युनिटी में "अनलॉक्ड फूड स्टोरेज" रखने का अनुबंध किया गया है. इस फूड स्टोरेज में इडली, डोसा, बड़ा और बिरयानी के पैक  रखे जाते हैं, जिन्हें बेचने  के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं होती है.  लोग स्वयं आकर अपनी जरूरत के पैक किए हुए आइटम ले जा सकते हैं और स्टोरेज के साथ लगी पास  मशीन पर पेमेंट कर सकते हैं,जिसमें कॉन्टैक्टलेस पेमेंट की सुविधा भी है. फीडबैक और आइटम वापस करने के लिए भी सुविधा है. शुरुआत में लगा था कि शायद लोग सामान ले जाएंगे और भुगतान नहीं करेंगे. 1- 2 मामलों को को छोड़कर कभी ऐसा नहीं हुआ और अब लोग स्वयं सामान ले जाते हैं और भुगतान कर जाते हैं. ऐसा नहीं होता है कि कोई सामान ले जाए और भुगतान न कर जाए. इसका थीम कि "लोगों का विश्वास किया जाएगा तो वह  विश्वास नहीं तोड़ेंगे" सफल रहा है.

फूड स्टोरेज में उपलब्ध सामान को ऑनलाइन देखा जा सकता है.  इस तरह शहर के सारे फूड स्टोरेज में एक केंद्रीकृत प्रणाली से सामान की बिक्री और उत्पादन को नियंत्रित किया जाता है. 

दक्ष के स्टार्टअप में इस फूड स्टोरेज के अलावा "एनी थिंग एनी टाइम एनी व्हेर" . यानी स्टार्टअप के मोबाइल ऐप पर खाने का कोई आइटम बुक करने के बाद किसी भी समय, पूर्व निश्चित स्थान या लोकेशन पर डिलीवरी ली जा सकती है. यह डिलीवरी कार में बैठे हुए, चौराहे पर, सड़क किनारे खड़े हुए, बस स्टॉप पर, यह किसी पार्क में भी ली जा सकती है.

 आज दक्ष के पिता के पास उनका पुराना काम है लेकिन उसका बिजनेस मॉडल एक  दम नया (इनोवेटिव)  है. वह इस नई कंपनी के चेयरमैन है और बेहद खुश हैं. लोग उनकी  कहानी सुनाते हैं  कि कैसे  सड़क पर  ठेला लगा कर इडली डोसा बेचने वाला व्यक्ति इतनी बड़ी कंपनी का मालिक बन गया ?

 दक्ष को भी अपने परियोजना प्रबंधन पर बहुत संतोष है. आज उसकी  कंपनी की चर्चा होती है, उसका वैल्यूएशन किया जा रहा है और लोग आईपीओ लाने की सलाह दे रहे हैं.

 दक्ष को  सबसे ज्यादा खुशी इस बात को लेकर है कि  अनेक  प्रबंध संस्थान में  उसके स्टार्टअप की सफलता की कहानी तमाम कार्यक्रमों  का हिस्सा होती है, और बर्कले यूनिवर्सिटी सैन  फ्रांसिस्को में जहां कभी वह व्याख्यान के लिए जाता था उसकी सफलता की कहानी  के वीडियो छात्रों और शोधकर्ताओं को दिखाये जाते हैं.

 बिल्कुल सच है कि पिंजरे में बंद रह कर कोई उड़ान नहीं भर सकता है.

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- शिव प्रकाश मिश्र 

मूल कृति - १४ अक्टूबर २०२० 

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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

पितृ सत्ता




विनय गुप्ता किदवई नगर  के  अपने छोटे से घर की  की बालकनी में बैठे हुए थे. रोज सुबह यहां बैठकर चाय पीते हुए समाचार पत्र पढ़ना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा थापर न जाने क्यों आज की सुबह एकदम अलग थी. चाय तिपाई पर रखी ठंडी हो चुकी थी. कुर्सी पर बैठे हुए उनके हाथों में समाचार पत्र ज्यों का त्यों  रखा था.  सामने हनुमान मंदिर की तरफ से आने वाली सड़क पर चलते हुए वाहन और लोग रोज की तरह आ जा रहे थे.सूर्य की रोशनी काफी फैल चुकी थी लेकिन फिर भी सुबह कुछ अलसाई सी थी ,  लेकिन उसकी  आँखे जैसे अनंत में टंकी हुई थी. निष्क्रिय सा वह न जाने कबसे इसी एक ही  मुद्रा में बैठा था,  जिसका  उसे  शायद अहसास भी  नहीं था.

जब उसकी तंद्रा टूटी तो उसे  लगा कि कानपुर का मौसम अचानक  बदल गया है. बरसात हो चुकी हैचारों तरफ पानी ही पानी है. सड़कें भीगी हैपेड़ पौधे भीगे हैं और आसपास  पानी पानी ही  दिख रहा है. सब कुछ पानी से तरबतर है. कुछ भी साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था. उसे आश्चर्य हुआ कि कानपुर के  मौसम में इतना परिवर्तन अचानक तो नहीं होता. नाक पर नीचे खिसक गए अपने चश्मे को ऊपर खिसकाते  हुए उसने ठीक से देखने की कोशिश की लेकिन फिर भी कुछ साफ दिखाई नहीं दिया तो उसने साफ करने के लिए  चश्मा उतारा तो दिखाई पड़ा कि बाहर तो सब कुछ ठीक हैपानी उसके चश्मे में है.  शायद  उसके अंतर्मन  में उमड़ते घुमड़ते हुए बादल आंखों के रास्ते बरस कर चश्मे को पूरी तरह से तरबतर कर चुके हैं . इसीलिए उसको सब कुछ भीगा भीगा सा और अस्तव्यस्त दिख रहा है.  उसने चश्मा भी पोंछा और आँखे  भी और  जल्दी से दाएं बाएं देखा कि किसी ने उसकी भीगी आँखे तो नहीं देंखी.  फिर उसे  याद आया कि घर में तो उसके आलावा कोई है ही नहींवह तो अकेला है.

 यही पितृसत्ता है जो पुरुष को रोने  नहीं देती और भूले भटके आंसू भी आ जाय तो छिपाना पड़ता है  कि कोई देख न पाय. पुरुष चाहे पुत्र होपति हो या पिता होउसे बचपन से ही इस मानसिकता का बोध कराया जाता है और मजबूत होने का आभास देते रहने का अभ्यास कराया जाता है. जैसे-जैसे जीवन एक पुत्रपति  और पिता  की ओर अग्रसर होता है पितृसत्ता का क्रमिक विकास होता रहता है. दुखद से दुखदविषम से विषम परिस्थितियों में भी न रोना और न आंसू बहाना उसके  मजबूत दिखने का आधार बन जाता है. पुरुष  अंदर से मजबूत  भले ही न हो लेकिन मजबूत दिखना उसकी मजबूरी है और शायद जिम्मेदारी भी क्योंकि अगर पितृ ही रोएगा तो और लोग क्या करेंगेउनको ढांढस कौन बंधायेगा यही कारण है कि कभी किसी ने  सामान्यता किसी पुरुष को रोते बिलखते हुए नहीं देखा होगा.

पितृसत्ता की यही मजबूती और स्वभाव की इतनी दृढ़ताभले ही दिखावटी होभरपूर संबल देती है मातृ सत्ता को और इसीलिए मां अपनी करुणा में निर्बाध रूप से बह सकती है या स्वयं ममता के सागर में  स्वछंद हिलोरे ले सकती है. लेकिन जब कभी करुणा के इन तारों को कोई उसके अपने अस्वाभाविक रूप से झंकृत कर देते हैं तो मां के आंसू निकल आते हैं . मां रोती भी हैबिलखती भी है और फिर आंचल से स्वयं ही आंसू पोंछ लेती है और जैसे यह सब कुछ  स्वाभाविक रूप से खुद सामान्य करने का प्रयास होता है. लेकिन पिता तो पिता हैरो नहीं सकताआंसू नहीं बहा सकता. कभी कभी  बांध में अनायास  अत्यधिक पानी आता है और   बाँध के ऊपर से निकलने लगता  तो यह  बहुत ही असामान्य होता  है.  बाँध की ऊंचाई बढ़ाते जाना ही विकल्प होता है जो उचित भले ही न हो लेकिन मजबूरी है. बाँध चाहे कितने ही वैज्ञानिक तरीके से बने होंऊंचाई कितनी भी अधिक क्यों न होनमी तो फिर भी आ ही जाती हैसेफ्टी वाल्व से कभी कभी बूंदे तो  टपकती ही हैं. यदि पानी बाँध तोड़ कर निकलने लगे तो परस्थितियाँ बहुत  बिषम और असाधारण ही  होती है.

 विनय सोचने लगा कि अतीत में  वह कब ऐसे आंसुओं के सैलाब में डूबा था शायद... कोई 15 साल पहले की बात होगी जब वह अपने बड़े बेटे को इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा दिलाने दिल्ली ले गया था. बेटे को परीक्षा केंद्र छोड़ आने के बाद पहाड़गंज के एक छोटे से होटल के एक छोटे से कमरे में खुद बंद कर बहुत आंसू बहाए  थे . यह वह समय था जब कुछ समय  पहले ही उसे लीवर कैंसर होने  का पता चला थाकाफी देर हो चुकी थी और अब उसके पास समय बहुत कम बचा था. उसे तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि भगवान उसके साथ ऐसा भी  कर सकता है और इसी विश्वास के साथ एक से दूसरे और तीसरे डॉक्टर को दिखाता रहा कि शायद कोई कह दे कि तुम्हे कुछ भी नहीं है,  लेकिन सब की राय एक जैसी थी कि "वह  तेजी से बढ़ने वाले लिवर कैंसर से पीड़ित है  और जितनी जल्दी हो सके उसे ऑपरेशन करवा लेना चाहिए".  वह इसके लिए मानसिक रूप से बिलकुल तैयार नहीं था. उसे मालूम था कि यदि  ऑपरेशन करवाया गया तो उसके बाद कैंसर के  इलाज की एक लंबी प्रक्रिया है. जितने भी आर्थिक संसाधन उसके पास हैं सब उसके आसपास ही सिमट जाएंगे. फिर उसके बच्चों का क्या होगा उसकी पत्नी  का क्या होगा वह  आर्थिक रूप से बहुत समृद्धि नहीं है. उसकी बेचैनी का कारण था उसका अपने  घर का इतिहास जो एक बार फिर दोहराने के कगार पर खड़ा था . बचपन में ही  उसके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी.  कितनी मुश्किल और तंगहाली से उसकी मां ने उसे पढाया लिखाया. दूसरों के घरों में  झाड़ू पोंछा और चौका वर्तन का काम किया. खुद उसने भी छोटे-मोटे काम किए और स्नातक के बाद नौकरी शुरू कर दी. प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का समय भी नहीं मिला. किसी इंजीनियरिंग और मेडिकल कोर्स करने के लिए सोचना भी मुश्किल था.  शायद उसकी मां ने जो तपस्या की थी उसी का ये सुखद परिणाम था कि उसे नौकरी  मिल गयी थी. वह सोचता था कि अब सब अच्छा ही होगा और शायद सदा सर्वदा के लिए उसका परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर आ जाएगा .  फिर पता नहीं भगवान क्यों इतना निष्ठुर है बार-बार उसकी परीक्षा क्यों हो रही है ?

 इस समय उसका  बेटा १२वीं  में पढ़ रहा था और बेटी  नवी क्लास में. वह यह सोच कर परेशान हो रहा था कि इस समय यदि उसे कुछ हो जाता है तो उसका पूरा आशियाना बिखर जायेगा. उसका अपना मकान  नहीं  और नौकरी में पेंशन  नहींआमदनी का और कोई साधन नहीं. ऐसी स्थिति  बेटे  की पढ़ाई तो छूटेगी हीघर चलने के लिए उसे छोटे-मोटे काम करने पड़ेंगे.  बेटी  भी पता नहीं क्या करेगीउसे भी कुछ ना कुछ करना पड़ेगा और पत्नी को भीहो सकता है कुछ छोटा मोटा काम करना पड़े. ये सोच कर ही उसका कलेजा मुहं को आ रहा है. जिन परस्थितियों से निकलने के लिए उसने  लंबा संघर्ष किया हैएक बार फिर वही परस्थितियाँसमय का वही चक्र फिर उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है.

वह ईश्वर से चाहता था कि उसे कम से  कम  से कम से 5 वर्ष का समय दे दे तो  शायद उसका परिवार बर्बादी से बच जाय. 5 साल का समय इसलिए कि बेटा इंजीनियरिंग पूरी करके किसी नौकरी में आ जाएगा और अगर उसने मां और बहिन  को सहायता दी तो  बेटी  भी पढ़ लिख जाएगी औए  कोई नौकरी कर सकेगी . तब शायद घर परिवार चलने में बहुत मुश्किल नहीं आएगी.  पूरे जीवन में उसने कभी किसी का अहित नहीं किया. भरपूर मेहनत की और भगवान पर पूरी आस्था रखी और सिर्फ इसलिए कि अच्छे व्यक्ति को अच्छे कार्य करने चाहिए,  वैसा ही करने की कोशिश करता रहा. वह  हारना नहीं चाहता था इसलिए आखिरी दम तक  कोशिश करना चाहता था.

 वह लगातार एक के बाद एक डॉक्टर को दिखाता रहा लेकिन  लखनऊ में संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में एक डॉक्टर ने  उसकी  फ़ाइल् में एक ही मर्ज के लिए अनेकों डाक्टर्स की  की रिपोर्ट और एक ही निष्कर्ष  देख कर कहा कि “क्या तुम  किसी ऐसे डॉक्टर को खोज रहे हो जो यह कह दे कि तुम्हे  कुछ नहीं हुआ है और तुम्हे कुछ नहीं होगा तो वह मैं नहीं हूँ. तुम्हे कैंसर है और अच्छा तो ये होगा  कि तुम तुरंत ऑपरेशन करा लो  लेकिन चूंकि तुम मामले को टाल रहे हो,  यहाँ के बाद फिर कहीं किसी डॉक्टर के पास जाओगे तो मै इस पर पूर्ण विराम लगा देता हूँ . तुम अभी ऑपरेशन नहीं कराना चाहते हो तो मत कराओ. हफ्ते में एक बार अल्ट्रासाउंड करवाना होगा और वह एक ही पैथोलॉजी सेंटर मेंऔर लीवर में कैंसर की गांठ का माप लेना होगा ताकि यह पता लग सके कि  कैंसर की वृद्धि कितनी तेज  है. अगर वृद्धि बहुत तेजी से हो रही है तो ऑपरेशन का निर्णय लेंगेअन्यथा जब तक टाला जा सकता है टालते रहेंगे.  आपरेशन के बाद भी ठीक होने की कोई गारंटी तो होती नहीं इसलिए थोडा रिस्क लेकर इन्तजार करना बुरा नहीं. जो दवायें लिखी हैंलेते रहोखान पान का ध्यान रखो. कभी कभी चमत्कार भी होतें हैं, उसका इन्तजार करो."   

 यह सुनकर उसे बहुत शांति मिली जैसे कि वह  यही चाहता था और फिर वैसा ही किया. हर हफ्ते  एक पैथोलॉजी में अल्ट्रा साउंड कराने का क्रम शुरू हो गया. घर में तो किसी को मालूम भी नहीं था कि उसे कैंसर की बीमारी है जैसे जैसे समय गुजर रहा था कैंसर की वृद्धि हो रही थी लेकिन जो सीमा उसे दी गयी थी उसमे अभी समय था. उसकी इच्छा अंतिम क्षण तक प्रतीक्षा करने की थी. इसी समय स्वामी रामदेव का योग प्रशिक्षण कार्यक्रम हुआ. उसने भी प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया और जैसा कि स्वामी  दावा करते थे कि योग से कैंसर भी ठीक हो जाता है. इस आशा से अनुलोम विलोम और कपालभाति से लेकर  योग की जितनी भी क्रियाएं वह कर सकता था या करना उसके लिए संभव थाकरना शुरू कर दिया.

उसे मालूम था के उसके पास समय बहुत कम  है. इसलिए बच्चों की पढ़ाई और घर में पैसे की बचत करने और सारे कार्य समय पर पूरे करने का बहुत ही कठोर परियोजना प्रबंधन शुरू कर दिया  ताकि सब कुछ जितना भी संभव हो समय से हो.  बच्चों की पढ़ाई में छोटी मोटी त्रुटियों को भी बहुत गंभीरता से लेता था और कई बार न चाहते हुए  डांटता भी था क्योंकि   उसे लगता था कि थोड़ी सी असावधानी उसके पूरे प्रोजेक्ट का सत्यानाश कर देगी . 

कुछ महीनो बाद पैथोलॉजी के डाक्टर ने हर सप्ताह के बजाय महीने में एक बार अल्ट्रासाउंड करवाना शुरू किया और एक साल बाद ये क्रम मासिक के स्थान पर त्रैमासिक हो गया . अल्ट्रासाउंड करने वाला डॉक्टर भी उसको बहुत  दिलासा  देता था कि अभी समय है चिंता की बात नहीं है. ऐसा लगता था कि जैसे ईश्वर उसे कुछ समय दे रहा है  और फिर समय मिलता गया. इस बीच बड़े बेटे की इंजीनियरिंग पूरी हो गयी. उसको अच्छा काम भी मिल गया. शादी भी हो गई और  बेटी की भी पढाई पूरी होकर उसे भी नौकरी मिल गई और शादी भी हो गयी तो उसे लगा शायद कि अब उसका प्रोजेक्ट पूरा हो गया है.  उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया और प्रार्थना की कि  ईश्वर चाहे तो अब अपना काम कर सकता है. उसने जो समय मांगा था वह पूरा हो गया है और सारे काम भी पूरे हो गए हैं .

अब तो उसकी जिंदगी जैसे बोनस की जिंदगी थी  सब कुछ हो चुका था और एक और जो इच्छा मां-बाप की होती है वह भी पूरी होने वाली थी  वह दादा बनने वाला था. एक  हफ्ते पहले ही वह और उसकी पत्नी बेंगलुरु में बेटे के पास गए हुए थे क्योंकि बहु की डिलीवरी होने वाली थी. इस समय  पितृपक्ष चल रहा था सामान्यतया इस  समय वह किसी यात्रा से बचता था क्योकि इस समय वह अनिवार्य रूप से रोज सुबह अपने पूर्वजों तर्पण करता था. पिता को तो उसने देखा जरूर था लेकिन  ठीक से याद नहींलेकिन  मां जरूर उसके लिए आराध्य थी और पूर्वजों के लिए तर्पण शायद मां को धन्यवाद ज्ञापित करने का एक तरीका था.

 इस पितृ पक्ष में  एक बहुत असामान्य घटना हुई . एक दिन सपने में उसे मां दिखाई दी और बताया कि वह उसके घर आ रही है. इशारा था कि  घर में पोती के रूप आ  रही थी. एक  सप्ताह पहले ही  पति-पत्नी बैंगलोर पहुंच गए और उस शुभ घड़ी का बड़ी उत्सुकता से इंतजार करने लगे. विनय के लिए खासी उत्सुकता की वजह  थी कि उनकी बोनस की जिंदगी में और कितनी   खुशियां मिलती चली जा रही हैं. आखिर वह घड़ी आ गई जब बहू को अस्पताल में भर्ती कराया गया. बेटा बहू और उसकी एक दोस्त उसके साथ में थी. चूंकि सारे लोग अस्पताल में नहीं रुक सकते थे इसलिए वे पति और पत्नीबेटे के कहने के अनुसार घर पर ही रहे. रात भर वे लोग जागते रहे और बेटे की फोन की प्रतीक्षा करते रहे. उसे पहली बार महसूस हुआ कि  किसी खुशी का इंतजार करना कितना उत्सुकता पूर्ण होता है जिसमें   धैर्य  रख पाना भी बहुत मुश्किल होता है. इसलिए उसने बीच बीच में एक दो बार बेटे को फोन कर पूछा भी . जब सुबह होने को आई फिर भी उसका फोन नहीं आया तो एक बार फिर उसने फोन किया तो बेटे  ने झुंझलाते हुए कहा कि “बार-बार फोन करके मुझे  परेशान मत करो मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं जब कुछ होगा तो आपको सूचना मिल जाएगी”.

 अच्छा तो नहीं लगा ..लेकिन दिल को तसल्ली दी  कि शायद ठीक ही कह रहा था पूरी रात अस्पताल में जाग रहा था. पता नहीं क्या क्या परेशानी हुई होगीकहीं ऑपरेशन वगेरह का तो चक्कर तो नहीं. आजकल डाक्टर बिना जरूरत के कुछ भी कर सकते हैं. इसी तरह सोचते सोचते  सुबह हो गयी . स्नान ध्यान के बाद अपने पूर्वजों के तर्पण की प्रक्रिया शुरू की. अब तक कोई समाचार नहीं मिला था ... चिंता हो रही थी लेकिन दोबारा  बेटे को फोन करने की हिम्मत नहीं हो सकी. आज उसे पहली बार एहसास हुआ कि बाप अपने बच्चों से भी  कितना डरता हैउन बच्चों से जिन्हें अपने हाथों बड़ा कियाकभी हाथों में लेकर झूले झुलायेगोद में लेकर बगीचे में लगे गुलाब के फूल की खुशबू का अहसास कराया जिनके हाथ पकड़ कर चलना सिखाया  और  कंधे पर बैठाकर घुमायासोने के पहले हर दिन कहानी सुनायी जिनको जुखाम बुखार होने पर  पूरी पूरी रात जागकर बिताई. उसे इस तरह के जवाब की अपेक्षा सपने भी नहीं थी.

तभी अचानक मोबाइल की घंटी बजी और लपक कर उसने फोन उठाया उसे जिस  बहुत बड़ी खुशखबरी की प्रतीक्षा थी अब वह समय आ गया है. सोचा  बेटे का फोन होगा लेकिन यह क्या ये तो कोई विदेशी  अनजान नंबर था. बात हुई तो पता चला समधी जी  लाइन पर थे. दुबई से उसे बधाई देने के लिए फोन किया था  कि घर में पोती आ गई है.

काश ये बात उसको बेटे ने  बताई होती तो कितना अच्छा लगता ! सात समुंदर पार  दूरदराज  बैठे हुए व्यक्ति को यह खबर मिल चुकी है और वह एक सप्ताह से यहाँ है सिर्फ और सिर्फ इसी सूचना के लिए और उसको अपनी पोती के आने की सूचना किसी अन्य से मिल रही है. उसने  संतोष किया कि हो सकता है बेटा पूरी रात  जागता रहा होगा परेशान होगा . पता नहीं कितनी मुश्किलों का सामना किया होगा और इस तरह की तमाम संभावित बातों से उसने अपने आप को संतोष दिया .  जल्दी से तैयार होकर दोनों पति पत्नी  निकल पड़े अस्पताल के लिए.

 अस्पताल पहुंचकर भी उसकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई क्योंकि अस्पताल में विजिटिंग आवर्स  होते हैं तभी मरीज से मिला जा सकता है. वह इंतजार करने लगा और यह समय भी कैसे कटा उसे नहीं मालूम .  इतनी उत्सुकता अपनी पोती के रूप में मां को देखने के लिए हो रही है इतनी तो अपने बच्चों के लिए भी नहीं हुई थी. आज जो बेचैनी है अपनी बेटी सामान  बहू को देखने के लिए भी है उसे  धन्यवाद देने के लिएजिसने उसके परिवार को आगे बढ़ाया.

 अन्दर जाने का समय  भी आ गया और वह पूछता हुआ उस प्राइवेट रूम में पहुंचा जहां उसकी बहू थी. उसने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी और उसका बेटा बाहर आ गया. जिसने बजाय उसे अंदर ले जाने के बाहर आकर कमरे का दरवाजा बंद कर दियावह एकटक देख रहा था और कुछ समझ नहीं पा  रहा था . इस समय का एक एक पल उसके लिए बहुत भारी हो रहा था. वह जल्दी से जल्दी अन्दर  जाना चाहता था और अपनी पोती को देखना चाहता थाउससे मिलना चाहता था. लेकिन बेटा था दरवाजा बंद कर ऐसे खड़ा था जैसे कि अभी भी अंदर जाने के लिए कुछ औपचारिकताये  बाकी है.  उससे पूछा “क्या हुआ” तो  बेटे ने जवाब दिया “बहु अभी सो रही है, अंदर जाने से डिस्टरबेंस होगा और अभी कुछ और लोग भी आ रहे हैंमेरे दोस्त वगैरह सब लोग एक साथ में ही मिल लेंगे तो अच्छा रहेगा. समय बचेगा और बार-बार बच्ची को और उसकी मां को परेशानी नहीं होगी”.

 ये शब्द  उसके  कानों में पिघले  शीशे की तरह अन्दर चले गए. ऐसा लगा कि वह बिल्कुल संज्ञा शून्य हो गया है. ऐसा नहीं लग रहा था कि यह बात उसके  अपने बेटे ने कही है. शायद इस तरह का रूखापन तो किसी अपरचित के पास जाकर देखने को भी  नहीं मिलता. यही है पितृ  सत्ताजहाँ कोई भी पिताकोई भी पुरुषया कोई भी मां बाप चाहे विश्व विजय कर ले लेकिन अपनी औलाद से कभी नहीं जीत सकते.  वह हमेशा हारते  हैं और उन्हें हारना ही पड़ता है. हर बारस्वयं जानबूझकर हारना भी पितृ सत्ता की जिम्मेदारी है और मजबूरी भी. जितनी असहनीय घुटन और पीड़ा  उसने इस समय महसूस की वह कल्पना से परे है. वह सोचने लगा....कि क्या इस सब के लिए भगवान से समय मांगा था परिवार बचाने के लिए किसका परिवार और क्या पाने के लिए किसके लिए ?

 तरह तरह की बातें उसके दिमाग में आने लगी. ऐसा लगा कि उसके आँखों के सामने अँधेरा छा  रहा है और चक्कर खाकर गिरने वाला हैदीवार का सहारा लेते हुए वह पास ही रखी बेंच पर बैठ गया. ये सब क्या हो रहा है इतना सब कुछ बदल चूका है और उसे इसका आभास तक नहीं है. शायद ये नए युग के  नए रिश्ते हैंजो आज बन रहे हैं मां बाप और बच्चों के बीच, जिनमे न अपनेपन की गर्माहट हैन सम्वेदनाएँ हैं, न ही संस्कार और न ही समझ .  रिश्तों का शायद अब कोई  महत्व नहीं है. ऐसा लगता है किसी कारपोरेट जगत की एक श्रेणी बद्ध व्यवस्था है जिसमें कोई बरिष्ठ है तो कोई कनिष्ठ. बस. बरिष्ठ सिर्फ इसलिए बरिष्ठ है क्योकि उसने परिवार रूपी संस्था में पहले प्रवेश किया है और उसका सेवा काल लम्बा है. कनिष्ठ इसलिए कि वह इस परिवार में बाद में आया है. इसके अलावा और  कोई  अंतर नहीं. आज का कनिष्ठ कल बरिष्ठ हो जायेगा और बरिष्ठ इस दुनिया से रिटायर  हो जायेगा. ये समय का चक्र हैचलता रहेगा. न जाने कब तक. वह  भावनाओं के इस ज्वार भाटे में डूबता उतराता रहा और न जाने कब शिथिल होकर अपने आपके लहरों के हवाले कर दिया.

 कुछ और लोग मिलने आए और वह भी कमरे  के दरवाजे पर पहुंचेजिनका  बेटे ने तपाक से स्वागत किया और अंदर ले गया. शायद उसके कंपनी के अधिकारी  या दोस्त होंगे . बेंच पर बैठे हुए उसकी खुशी और उमंग उस मुकाम पर पहुंच गई थी जैसे समुद्र की ऊंची उठती लहरें किनारे से टकराकर बहुत ही धीमी गति से वापस हो जाती हैं. लेकिन अब तो बहुत समय हो गया था. बेटे से मिलने वाले लोग बाहर निकल रहें थे. बेटा उन्हें छोड़ने निकला. उसकी स्थिति मुंशी प्रेमचंद की बूढ़ी काकी की तरह हो रही थी.  थोड़े इंतजार के बाद बड़ी बेशर्मी से बेटे के पीछे वह कमरे के अंदर चला गया. बिना उसके बुलाने का इंतजार और बिना ये सोचे के उनका बेटा क्या कहेगाकमरे के अंदर पहुंचाते ही झूले में लेटी बच्ची को देखकर जैसे उसके पुराने घाव बिलकुल  भर गए और  बड़ी उत्सुकता से मुस्कुराता हुआ वह अपनी पोती की तरफ बढ़ा,  उसे पास से देखनेछूने और यह  एहसास करने के लिए कि आखिर वह  उसकी पोती ही नहींउसकी मां भी है. 

 इससे पहले कि वह अपनी पोती को हाथ भी लगा पाता बेटे ने  टोकते हुए कहा कि  “डॉक्टर ने इसे छूने से  मना किया हैइंफेक्शन हो सकता है”.

उसने हाथ पीछे खींच लिए और उसको सिर्फ दूर से देखा. तभी किसी ने  पीछे से कहा “ भैया इनके भी दो बच्चे हैं ”

उसने पीछे मुड कर देखा उसकी बेटी कह रही थी. जैसे ये उसके अपने ही दिल के शब्द थे. पहले के समय में तो उसके भी घर परिवार के  सारे लोग आते थेकभी किसी को इन्फेक्शन नहीं हुआ. उसने बहुत प्यार से पोती को देखा और मन ही मन अपनी मां को प्रणाम करते हुए पीछे जाकर बेटी के पास खड़ा हो गया कि जैसे  कि उसकी मां ने उसको बता दिया है  कि बच्चे कितने कीमती होते हैं उतने कीमती जितनी मां बाप की हैसियत होती है.

 क्या परिवार में जिस समय साधन कम होते हैंप्यार और ममता ज्यादा  होती है?

जैसे-जैसे साधन और संसाधन बढ़ते हैंममता और प्यार के  बंधन ढीले हो जाते हैं ?

अपनापन सूखने  लगता है ?

अपने परिवार के लिए किया गया संघर्ष कहीं खो जाता है ?

ऐसी ऐसी परियोजनाएं जिन्हें पूरा करने के लिए व्यक्ति दीवानगी की हद तक लगा रहता हैअपना सबकुछ दांव पर लगा देता है. परियोजनाए सफल होने के बाद ऐसा पारितोषक मिलता है  इसकी तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की  थी. एक थके हारे पराजित योद्धा की तरह वह कमरे से बाहर आ गया. पत्नी से उसने कहा कि कुछ बहुत जरूरी काम आ गया है इसलिए उसे आज ही कानपुर वापस जाना पड़ेगा.

“ रिटायरर्मेंट के बाद अब कौन सा जरूरी काम बचा है” पत्नी ने कहा.

“तुम चाहो तो रुक जाओमुझे तो जाना  ही पडेगा" यह कह कर वह वापस चल दिया.

 पत्नी तो रुक गई. पता नहीं वह कुछ समझ भी पाई या नहीं किन्तु उसमे इतने सहनशीलता तो   है कि बड़े से बड़ा अपमान और उपेक्षा आंसुओं में बहा देगीलेकिन वह तो पिता हैपुरुष है जिसके आंसू नहीं निकल सकते हैंजो किसी को एहसास भी नहीं होने दे सकता कि उसे कितना दुख हुआ है. 

वह कल रात  ही बंगलोर से वापस आया था. रात में कब आँख लगी थी उसे पता नहीं.  आज सुबह उठा और चाय  लेकर हमेशा की तरह बालकनी में बैठा हुआ था.

और .... तभी घंटी बजीदरबाजा खोला तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी.

आश्चर्य उसने से पूछा “अरे तुम्हें कैसे मालूम हुआ मैं आ गया हूं”

“भाभी ने सुबह फोन किया था कि भैया रात में पहुंच गए होंगेजरा देख लेना” उसने बताया

“भैया पोती की बहुत-बहुत बधाई. भाभी कह रही थी कि सब कुछ बहुत अच्छा हो गया है बहू भी ठीक है और बच्ची भी  ठीक है” उसने कहा

वह मुस्करा कर रह गया. कुछ बोल नहीं पाया.

“भैया मेरे यहां भी बहू को बेटा हुआ है,” उसने बताया

“अरे बहुत अच्छा,  बेटा और बहू तो ठीक है ?’  उसने पूंछा

“हैं भैया बिलकुल ठीक है’

" नाती के  नाकआँखे बिलकुल सुनील ( सुनील बाई का बेटा था ) के पापा की तरह हैं. ऐसा लगता है कि वो हम लोगों के बीच फिर आ गए हैं. उन्हें आना ही था हम सब पहले से ही जानते थे." बताते हुए उसके चहरे पर चमक आ गई थी.

"भैया आज उसकी छटी  है" उसने आगे बताया .

"बहुत अच्छा,  खूब धूम धाम से करो छटी"  उसने औपचारिकता वस कह दिया 

"भैया अब क्या  धूमधाम से करें ?" कहते हुए उसके आंसू आ गए.

"सुनील के पापा ने सभी बच्चों के छठीमुंडन सब कुछ  बहुत धूमधाम से किए थेलेकिन तब की बात और थी. अब हम लोगों के पास है ही क्या“ लेकिन भैया हमारा लड़का और बहू बहुत अच्छे हैं. बिना हमसे पूंछे बताये कुछ नहीं करते. बहुत ध्यान रखते हैं हमारा.  सुनील तो अपने  पिताजी को याद करके बहुत दुखी हो रहा था कह रहा था कि पिता जी होते तो बात अलग थी. कह रहा था कि  किसी तरह से ऐसे ही कर लो . अब उसे कौन समझाए भैया,  वह  तो बहुत छोटा थाजब उसके पिता जी गुजर गए थे. किसी तरह से आप सब लोगों के घरों में  काम करके बच्चे पाल पोष कर बड़े किये और जितनी हमें समझ थी जितना हम कर सकते थेकिया. अब दोनों काम करते हैं. सुनील ई रिक्शा चलाता है और छोटा वाला दवाई की दुकान में काम करता है.  अब जो भी है भैया किसी तरीके से घर  व्यवस्थित हो गया है.  सब अपना अपना काम कर रहे हैं." उसने संतोष व्यक्त करते हुए जैसे एक साँस में अपने जीवन का सारांश बता दिया

 "पारिवरिक प्रेम  और  पारिवारिक खुशी के लिए  जो भी किया जाता है वह बहुत  अच्छा ही  होता है. ये खुशी का मौका हैपरिवार के साथ  इसे उत्सव की तरह  मनाओहर एक के नसीब यह सुख नहीं होता " यह कहते हुए वह अंदर गया और  एक पैकेट लाकर बाई के  हाथ में पकड़ा दिया. यह वही  कपड़े थे जो अपने होने वाले पोते / पोती के  लिए बैंगलोर ले गया  था किन्तु अचानक चले आने के कारण दे नहीं पाया था .

"इसमें तुम्हारे नाती के लिए कपड़े हैंऔर ये रु.१००००/ रख लो.  यह मौका खुशी का हैइसे हाथ से मत जाने दो" उसने कहा

बाई की आँखों में आंसू आ गए. उसने  आंचल से आंसू पोंछे और कहा " भैया छोटे मुहं, बड़ी बात है लेकिन अगर एक उपकार आप हमारे परिवार पर कर दें तो हम लोंगों को बहुत खुशी होगी"

" क्या ?" उसने पूंछा

"अगर आप आकर हमारे नाती को आशीर्वाद दे दें तो हम लोग धन्य हो जायेंगे" बाई ने हाथ जोड़ लिए 

" हाँ हाँ क्यों नहीं  " उसने तपाक  से जबाब दिया " मैं जरूर आऊँगा "

"भगवान आप जैसे  लोगों को भी बनाता हैतभी तो ये दुनिया चल रही है"  बाई ने जब कहा तो उसे  समझ ही नहीं आया कि वह इसका क्या जबाब दे लेकिन उसने कहा "अब तुम जाओ तैयारियां करोयहाँ का काम छोड़ दो.  कल देखा जाएगा"

धोती के  आंचल से अपनी भर आई आंखें पोछती बाई  धीरे-धीरे सीढिया  उतर रही थी.

इसके साथ ही उसका मन भी थोड़ा हल्का  होने लगा था.  वह सोच रहा था कि रिश्तों की डोर से  बंधे  और उसे मजबूत करने के लिए हम सब अपने अपने मां बाप और बुजुर्गों को  अपने पोते पोतियों  के रूप में खोजते रहते हैं ताकि उनसे अटूट संबंध बना रहे और तभी तो हम अपने बच्चों के चहरे में अपने प्रियजनों की शक्ल ढूंडते हैं. उन  चेहरों  में  अपने मां बाप और प्रियजनों  की आँख नाक कान  और  पता नहीं क्या क्या खोज निकालते  हैं ताकि हमारी पीढ़ियों  के बीच में सामंजस्य बना रह सकें. आज उसे यह समझ में गया था कि पारिव़ारिक प्रेम और रिश्तों की गर्मजोशी के लिए "क्वालिफिकेशन " और "पोजीशन" बाधक नहीं होती  और परियोजना प्रबंधन से ये चीजें पायीं तो जा सकती हैंलेकिन पारिवारिक प्रेम और रिश्तों की प्रगाढ़ता भी मिले ये जरूरी नहीं. 

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शिव प्रकाश मिश्रा 

मूल कृति - २५ दिसम्बर २०१८  

कक्कू का कुआं

  वैसे तो  उसका नाम गोवर्धन सिंह था  और बड़े भाइयों के  बच्चे उसे कक्कू कहकर बुलाते थे  लेकिन यह नाम उसके साथ ऐसा चिपक गया कि मोहल्ले के स...