बद्रीनाथ मंदिर में दर्शन के बाद मन बहुत प्रसन्न था. मंदिर के गरम पानी के कुंड में नहाने जैसा आनंद तो किसी पांच सितारा होटल के स्विमिंग पूल में भी कभी नहीं आया था. भगवान बद्री विशाल के दर्शन के बाद जैसे मन बहुत शांत हो गया था. इसके बाद मुझे दोस्तों के साथ व्यास व गणेश मंदिर तथा भीम पुल देखने जाना था . इसके आगे माना गांव था जो सीमा पर भारत का आखिरी गांव था और उसके बाद चीन की सीमा प्रारंभ होती है. मंदिर के सामने से निकलते हुए बद्रीनाथ मंदिर के कुछ फोटो लेते हुए धीमे-धीमे आगे बढ़ रहा था कि अचानक मेरी निगाह एक सन्यासी और सन्यासिन पर पड़ी जो सामान्य सन्यासियों से सर्वथा भिन्न लग रहे थे.
लगभग 6 फुट के स्वामी जी और 6 फुट से कुछ ही कम साध्वी. ऊपर से नीचे तक सलीके से पहने गए भगवा वस्त्र, गोरा चिटटा रंग और आकर्षक चेहरा सब मिलाकर उन दोनों के व्यक्तित्व को अत्यधिक प्रभावशाली और गरिमामयी बना रहे थे. सन्यासी की आंखों पर काले - पतले फ्रेम का चश्मा, और मस्तक पर लाल पीले चंदन का तिलक, बढे हुए खिचड़ी बाल और बिना दाढ़ी मूछ का साफ सुथरा चेहरा. साध्वी ने बिना फ्रेम का चश्मा लगाया था और माथे पर लाल पीले चंदन का तिलक. सिर के लगभग सफेद हो चुके बालों के साथ गंभीर और मोहक छवि. दोनों की उम्र 60 से 65 वर्ष के बीच होगी. मुझे लगा कि शायद किसी फिल्म या टीवी सीरियल की शूटिंग हो रही है, इसलिए मैं ठिठक गया और इधर उधर निगाह दौड़ाई लेकिन कहीं कुछ नजर नहीं आया. सन्यासी का चेहरा मुझे परिचित जैसा क्यों लग रहा था? सोचा किसी धार्मिक टीवी चैनल पर प्रवचन करते देखा होगा. लेकिन अचानक जैसे मुझे सब कुछ याद आ रहा था और मैं तेज कदमों से उन सन्यासियों की तरफ चल पड़ा .....
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(२)
मैं और शंटी सहपाठी तो थे ही, हॉस्टल में भी एक ही कमरे में रहते थे इसलिए हम लोगों के रिश्ते दोस्ती से ज्यादा पारिवारिक हो गए थे. मेरा उसके घर बहुत ज्यादा आना जाना था और परीक्षा के पहले उसके घर पर ही हम लोग साथ-साथ तैयारी करते थे. शंटी के पापा बैंक में बड़े अधिकारी थे और उसके बाबा साथ रहते थे जो पोस्ट मास्टर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए थे. घर के सभी सदस्यों से मेरी घनिष्ठता थी, इसलिए पारिवारिक बातें भी मेरे सामने होती रहती थी.
मुझे एक बात बहुत असामान्य लगती थी कि शंटी की मम्मी, उसके पापा से कभी अच्छे ढंग से पेश नहीं आती थी और बात बात में ताने मारा करती थी. कभी-कभी ऐसा लगता था कि वह जानबूझकर उन्हें व्यथित करने के लिए ऐसा करती हैं. पता नहीं क्या दुश्मनी थी ? घर का पूरा नियंत्रण उन्हीं के हाथों में था.
जो भी हो, शंटी के पापा संपूर्णानंद त्रिपाठी उनसे किसी भी तरह उलझते नहीं थे. वह बेहद शालीन और शांत स्वभाव के उच्च शिक्षित व्यक्ति थे और घर की प्रत्येक जिम्मेदारी बखूबी निभाते थे. उनके व्यक्तित्व की एक विशेष बात थी कि न वह कभी हंसते थे न मुस्कुराते थे और न ही अनावश्यक बात करते थे. वह अपने काम से काम रखते थे और बहुत ही नपी तुली बात करते थे. मैंने महसूस किया था कि वह अपनी पत्नी की बातों से इतना दुखी रहते थे कि दुख की चादर हमेशा उनके व्यक्तित्व पर छाई रहती थी. ऐसा लगता था कि वह अपनी नीरस जीवन को, बिना उफ किये सजा की तरह काट रहे थे.
जब कहीं किसी सामाजिक कार्यक्रम में सपरिवार जाना होता था, तो मानो वह अपने बच्चों की मां को या अपने पिता की बहू को साथ ले जाते थे, पत्नी को नहीं. जब तक उनके पिता जिंदा थे तब तक तो कुछ गनीमत थी क्योंकि वह अपनी बहू को टोकते रहते थे और सुखी दांपत्य जीवन के बारे में समझाते रहते थे. आखिर वह उनके बहुत ही घनिष्ट दोस्त की बेटी जो थी. उनके निधन के बाद यह नियंत्रण भी खत्म हो गया और बढ़ती कलह के कारण संपूर्णानंद त्रिपाठी के लिए घर का माहौल और ज्यादा कष्टकारी और असहनीय हो गया. उन्होंने इसके लिए एक उपाय ढूंढ निकाला और वह था शहर से दूर की पोस्टिंग ताकि वह पत्नी की नियमित यातना से बच सकें. केवल बड़े तीज त्यौहार में ही घर आते थे. मुझे याद है कि एक बार वह दिवाली में भी नहीं आ सके थे क्योंकि उनकी ब्रांच में ऑडिट चल रहा था. शंटी की मम्मी ने आसमान सिर पर उठा लिया था " वह उसी कुलक्षनी के घर गए होंगे या उस कुल्टा को वहीं बुला लिया होगा .. पता नहीं क्या क्या ...अनाप ..शनाप "
मैंने एक बार हिम्मत करके शंटी से पूछा ही लिया "कि यह कुलक्षिनी और कुलटा कौन है ?" शंटी भी अपनी मम्मी के आचरण से बहुत दुखी रहता था लेकिन कुछ कर नहीं सकता था. उसने बताया कि उसके पिता का कॉलेज के दिनों में किसी लड़की से प्रेम प्रसंग था और दोनों ही शादी करने के लिए कृत संकल्पित थे लेकिन बाबा उनकी शादी अपने दोस्त की बेटी के साथ करने के लिए वचनबद्ध थे और उनके दबाव के कारण ही उसके पिता को ये शादी करनी पड़ गई. लेकिन उस लड़की ने अपने परिवार के दबाव को दरकिनार करते हुए कभी शादी न करने का फैसला किया और वह आज भी अविवाहित है. वह लखनऊ विश्वविद्यालय में इंग्लिश की प्रोफेसर हैं डॉक्टर सरस्वती शर्मा. किन्तु दोनों के बीच में आजकल कोई भी संपर्क नहीं है. शंटी ने बताया कि उसने अपनी मां के लिए कई बार इन लोगों की जासूसी भी की, जिसका उसे बहुत दुख है लेकिन मां के बे सिर पैर के आरोपों में कोई सच्चाई नहीं निकली.
बाद में मुझे पता चला कि मेरी मौसेरी बहन जिसके मार्गदर्शन में पीएचडी कर रही है, वह कोई और नहीं डॉक्टर सरस्वती शर्मा ही है. मेरी बहन ने डॉक्टर शर्मा के बारे में जो कुछ भी बताया, उससे उनके त्याग और तपस्या ही परिलक्षित हुई . पूरे विश्व विद्यालय के शिक्षक संकाय में उनका बहुत मान सम्मान था वह सबकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहती थीं . परिवार न होने के कारण प्राय विश्वविद्यालय प्रशासन त्योहारों और छुट्टियों के मौके पर विभिन्न परियोजनाओं में उनकी ड्यूटी लगा देता था , और वह चुपचाप खुशी-खुशी यह सब करती रहती थीं . विश्वविद्यालय की वह इकलौती ऐसी प्रोफेसर थीं जो अतिरिक्त कक्षाएं लेती थीं, छात्रों की समस्याओं के लिए सदैव तत्पर रहती थी , और कितने ही सामाजिक कार्यों से जुड़ी थीं . अपने आप को व्यस्त रखना शायद उनकी आदत थी .
कालांतर में उस बैंक में मेरा चयन हो गया, जहां संपूर्णानंद त्रिपाठी वरिष्ठ अधिकारी थे और यह सुखद संयोग ही था कि परीक्षाधीन अवधि में सामान्य बैंकिंग की ट्रेनिंग के लिए वही शाखा मिली जहां वह मुख्य प्रबंधक थे. चार-पांच महीनों की इस अवधि में मेरा उनसे रोज ही मिलना होता था और वहां मैंने उन्हें एक नए इंसान के रूप में पाया. बैंक मैं उनकी गिनती बेहद कार्य कुशल, जानकार और सक्षम अधिकारियों में होती थी. कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ उनके संबंध बेहद अपनत्व भरे थे और सबसे बड़ी बात थी कि वह किसी भी स्थिति में किसी से नाराज नहीं होते थे. एक दिन शाखा के एक कर्मचारी ने एक ग्राहक के साथ बेहद गैर जिम्मेदारी भरा काम किया जिस पर स्वाभाविक रूप से कोई भी मुख्य प्रबंधक बहुत नाराज होता, लेकिन उन्होंने उसे बुलाया और समझा कर वापस भेज दिया.
मैंने उनसे पूछा "सर इतनी बड़ी गलती और आपने नाराजगी तक प्रकट नहीं की, डांटना तो दूर की बात"
उन्होंने बहुत शांत मुद्रा में कहा " मैं सिलेक्टिव कैसे हो सकता हूं ? कितनी ही विषम परिस्थितियों में मैं घर पर भी किसी से नाराज नहीं होता या नहीं हो सकता , तो बाहर कैसे नाराज हो जाऊं. मैं दोहरे मापदंड कैसे अपना सकता हूं? नाराज न होना अब मेरा आत्मसमर्पण नहीं, आदत है."
मैंने महसूस किया की शाखा में कर्मचारी उनकी इस आदत से परिचित थे, इसलिए ज्यादातर में उनके समझाने का व्यापक सुधारात्मक असर पड़ता था और यही सभी से उनकी आत्मीय संबंधों की कुंजी थी. मैंने कभी उन्हें खाली नहीं देखा, दफ्तर में काम में व्यस्त रहते थे और छुट्टी के समय अपने निवास पर पुस्तकें पढ़ते थे जिनमें बहुतायत आध्यात्मिक होती थी.
शाखा में रहते हुए इतने कम समय में मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. वहां से स्थानांतरण के पश्चात भी मैं अक्सर सोचता था कि ईश्वर ने उनके साथ ऐसा इतना अन्याय क्यों किया? उनका दाम्पत्य जीवन इतना पीडादायक था कि उनके प्रति मेरी सहानुभूति, सम्मान और श्रद्धा में बदल गई थी. मैं अक्सर सोचता था कि काश उनकी शादी उसी लडकी से हुई होती .... शायद उनका जीवन बिलकुल अलग होता . कैसा होता ? पता नहीं, लेकिन मेरे मन में ये बात बहुत गहराई से बैठ गयी थी कि ये सब न होने की लिए संपूर्णानंद पूरी तरह से जिम्मेदार थे. क्यों उन्होंने इसे स्वीकार किया और विरोध नहीं किया? इसलिए उनका दाम्पत्य जीवन अगर सजा है तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए थी .
जैसे जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, दोस्तों की आवश्यकता तो बहुत बढ़ती है, पर दोस्तों की संख्या नहीं बढ़ती, ज्यादातर दोस्त वही रहते हैं जो बचपन से लेकर छात्र जीवन तक बनते हैं और उनसे भी धीरे-धीरे अपनी अपनी व्यस्तताओं के कारण संपर्क कम होता रहता है, लेकिन मैं और शंटी हमेशा संपर्क में रहते थे. वह उत्तर प्रदेश सचिवालय में समीक्षा अधिकारी था जहां अच्छी बात यह थी कि स्थानांतरण नहीं होते थे. मैं स्थानांतरण के कारण एक शहर से दूसरे शहर और अब दूसरे राज्य में पहुंच गया था.
एक दिन अचानक शंटी ने घबराते हुए फोन किया और बताया कि पापा घर छोड़ कर पता नहीं कहाँ चले गए हैं? मैं स्तब्ध रह गया. उसने बताया कि सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने भविष्य निधि, ग्रेच्युटी सहित कुल जमा पूंजी मम्मी को दे दी थी, शायद उनके दिमाग में कोई योजना थी. वह एक पत्र छोड़ गए हैं जिसमें उन्होंने लिखा है कि उन्होंने अपने जीवन की सारी जिम्मेदारियां पूरी कर दी है, बच्चों की पढ़ाई लिखाई नौकरी और शादी सब कुछ व्यवस्थित ढंग से हो गया है. मम्मी के लिए मकान, नौकरी की सारी बचत और सेवानिवृत्ति पर मिले सभी रुपए छोड़कर जा रहे हैं. पेंशन का खाता मम्मी के साथ संयुक्त खाता है, जिसकी चेक बुक एटीएम कार्ड सब मम्मी के पास है. उन्होंने लिखा है कि जब तक जीवित रहेंगे वह जीवन प्रमाण पत्र देते रहेंगे और पेंशन मम्मी को मिलती रहेगी. मर जाने पर व्यवस्था करेंगे की मृत्यु प्रमाण पत्र भी सही जगह पहुंच जाएं ताकि फैमिली पेंशन आती रहे. इसलिए मम्मी के जिंदा रहने तक उन्हें कोई वित्तीय समस्या नहीं आएगी. वह अपने बचे हुए जीवन में मन और चित्त के लिए शांति की खोज के लिए भ्रमण करेंगे, इसलिए उन्हें ढूंढने और संपर्क करने के प्रयास में समय बर्बाद न किया जाए.
मैं स्तब्ध रह गया. मैंने पूछा कि "कहीं पता किया क्या ?" तो उसने कहा 'नहीं' लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा लेकिन न जाने क्यों मै पता नहीं करना चाहता क्योंकि यही पापा की इच्छा है. मुझे लगता है कि शायद यही उनके हित में है. मैं उस समय शांत हो गया लेकिन मन अशांत हो गया.
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(३)
सन्यासी और साध्वी के पास पहुंचने के बाद मैंने सन्यासी की तरफ देखते हुए कहा "अंकल प्रणाम"
सन्यासी ने एक टक मुझे देखा जरूर लेकिन कोई जवाब नहीं दिया. मैं भी लगातार उन्हें देखे जा रहा था, लगा कोई गलतफहमी हो गई है क्या?
थोड़ी देर के लिए सभी निशब्द हो गए. मैं उन्हें देख रहा था और वह मुझे देख रहे थे.
साध्वी ने हस्तक्षेप किया और हम दोनों की तरफ देखते हुए पूछा " क्या आप लोग एक दूसरे को जानते हैं?"
"स्वामी जी का तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं इन्हें अच्छी तरह से जानता हूं" मैंने जवाब दिया, लेकिन सन्यासी ने फिर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, इसलिए मैंने फिर बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-
" अंकल मैं शंटी का दोस्त हूं, राज .... राज वर्मा " सन्यासी की आंखों में मैंने झांक कर देखा तो लगा कि प्रश्न परिचित होने का नहीं है बल्कि परिचित होने की स्वीकारोक्ति का है. यह हां और न के बीच का असमंजस है. लेकिन मैं आश्वस्त था कि यह वही है, इसलिए अधीर हो रहा था. मैंने झुक कर उनके पांव छुए और फिर बात आगे बढ़ाई -
" सर, मैं जनरल बैंकिंग के लिए आपका ट्रेनी था, राज वर्मा.... ८७ बैच, चंदौसी ब्रांच." मैं जैसे उन्हें याद दिलाने की कोशिश कर रहा था.
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाकर वह बोले
"कैसे हो..... राज?"
मेरी खुशी का ठिकाना न रहा "अच्छा हूं सर" मैंने कहा
" यहाँ कैसे ?" उन्होंने पूछा
" ट्रैकिंग के लिए 'फूलों की घाटी' गया था, लौटते हुए दर्शन करने के लिए रुका था और अब माना गांव जा रहा हूं" मैंने बताते हुए पूछा -
"लेकिन आप ? और यह सन्यासी की वेशभूषा?"
उन्हें गहरी सांस खींचते हुए बहुत ही निश्चिंत भाव से कहा-
"मैंने अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद घर छोड़ दिया है,... और सन्यास ले लिया है". कुछ रुक कर वह बोले -
"तुम कुछ भी अर्थ निकाल सकते हो..........घर छोड़ने के लिए संयास ले लिया या फिर....... सन्यास लेने के लिए घर छोड़ दिया"
फिर उन्होंने साध्वी की तरफ इशारा करते हुए कहा-
" यह है डॉ सरस्वती शर्मा, लखनऊ विश्वविद्यालय में इंग्लिश की प्रोफेसर, अभी हाल ही में रिटायर हुई हैं ."
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा . मैंने उत्सुकता पूर्वक साध्वी की और देखते हुए कहा -
" मैंने पहले कभी आपको देखा तो नहीं है लेकिन आपके बारे में थोड़ा बहुत जानता जरूर हूं. सर को तो मैंने घर और ऑफिस दोनों जगह देखा समझा और महसूस किया. मैं जितना भी आप के बारे में जानता और समझता था उससे मेरे दिल में आप के लिए बहुत ही सम्मान था लेकिन आज आप दोनों के लिए मेरे दिल में बहुत श्रद्धा उत्पन्न हो गयी है ."
थोड़ा संभलने की कोशिश करते हुए भी मेरे मुहं से मेरे दिल की बात निकल गई .
" मुझे नहीं मालूम क्यों? लेकिन आप दोनों को, इस रूप में ही सही, उम्र के इस पड़ाव पर ही सही, साथ-साथ देखने से मेरे मन की गहराइयों में बसी एक अकुलाहट आज समाप्त हो गई है. इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं और यह मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं" यह कहते हुए मैंने साध्वी के भी चरण स्पर्श किये. पर पता नहीं क्यों मेरी आंखें भर आई, गला रुंध गया.
रुक रुक कर बोलते हुए मैंने कहा -
"मैं आपका बेटा तो नहीं, लेकिन बेटा जैसा ही हूं. अगर कभी आप लोग मुझे सेवा का मौका देंगे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी और मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगा "
साध्वी के चहरे पर जैसे वात्सल्य उमड़ आया था. दोनों ने बारी बारी अपना हाथ मेरे सिर पर रखा और बड़े प्यार से सहलाया और फिर चल पड़े नीचे घाटी की ओर एक साथ एक रास्ते पर , स्वामी सम्पूर्णानंद सरस्वती और साध्वी सरस्वती सम्पूर्णा .
यहां से मेरा रास्ता अलग था लेकिन मैं उन्हें यूं ही जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक कि वे मेरे आंखों से ओझल नहीं हो गए.
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- शिव प्रकाश मिश्रा ( Shive Prakash Mishra )
मूल कृति - १५ अगस्त २०१८ (Copy Right)
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